मौसम पर इंसानों का कंट्रोल । क्लाउड सीडिंग टेक्नोलॉजी । cloud seeding Technology

मौसम पर इंसानों का कंट्रोल । क्लाउड सीडिंग टेक्नोलॉजी  । cloud seeding Technology


 क्लाउड सीडिंग टेक्नोलॉजी 

 इन्सानों ने कुछ हद तक मौसम को कंट्रोल करना सीख लिया है। क्लाउड सीडिंग टेक्नोलॉजी की मदद से हम जहां चाहे वहां बारिश करा सकते है। ये ऐसी टेक्नोलॉजी है जिसका कई सालो से इस्तेमाल किया जाता आ रहा है। चाइना जैसे देशों ने तो मिलियन डॉलर खर्च किए हैं इस टेक्नोलॉजी पर इसका मतलब क्या इंसानों ने मौसम को कंट्रोल करना सीख लिया है? क्या ये नई टेक्नोलॉजी पानी की कमी खत्म कर शक्ति है?

इस टेक्नोलोजी का अब आप चाहे तो इसका अपने मकसद के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं जैसे की अगर आपको डर है आपकी शादी में कही बारिश ना हो जाए तो फ्रांस में एक कंपनी क्लाउड सीडिंग की सर्विसेज ऑफर करती है आप इस कंपनी को एक करोड़ देंगे यह क्लाउड सीडिंग करके ये इंश्योर करेंगे की आपकी शादी के दिन कोई बारिश नहीं होगी यह सुनकर सबसे बड़ा सवाल आपके दिमाग में आएगा की अगर ये टेक्नोलॉजी इतनी ही अच्छी है तो हमारे देश में जो पानी को लेकर समस्या होती है कही पर ज्यादा बारिश हो जाति है, उससे आने वाले फ्लर्ट्स कही पर पानी की कमी इन साड़ी प्रॉब्लम्स को सॉल्व करने के लिए क्यों नहीं इस्तेमाल किया जाता। क्लाउड सीडिंग की टेक्नोलॉजी को समझने से पहले हमें समझना होगा क्लाउड्स के बारे में आखिर ये बादल होते क्या है और कैसे फॉर्म होते हैं। अब हम सब ने स्कूल में पढ़ा था, तीन स्टेटस के बारे में सॉलिड, लिक्विड, और गैस। अगर हम पानी की बात करें तो पानी में तीनो स्टेज में होती है की यानी बर्फ लिक्विड वाटर
पानी और गैस वाटर वेपर। अब अगर किसी चीज का एक स्टेट से दूसरी स्टेट में कन्वर्शन होता है तो उसे प्रोसेस को नाम दिया जाता है, जैसे बर्फ अगर पिघल के पानी बनती है तो इसे हम मेल्टिंग कहते हैं, पानी जब दोबारा से बर्फ बनता है तो इसे हम फ्रीजिंग कहते हैं, पानी जब वाटर पेपर बनता है तो इसे इवेपरेशन या वेपराइजेशन कहते हैं और वाटर वेपर जब दोबारा से वाटर बनता है तो इसे कंडेंसेशन कहा जाता है। अब होता क्या है
जमीन पर हमारी हवा में काफी सारे वाटर वेपर मौजूद होता है। हवा में अगर बहुत ज्यादा वाटर वेपर मौजूद है तो हम कहेंगे की बहुत ज्यादा ह्यूमिडिटी। और हवा में कम वाटर वेपर है तो कम ह्यूमिडिटी है। अब ये वाटर
वेपर जब ऊपर जाता है अब जानते हो जितना ज्यादा हम जमीन से ऊपर जाते हैं जितना ज्यादा एल्टीट्यूड बढ़ता है उतनी ज्यादा ठंड भी बढ़नी है जैसे की पहाड़ियों के ऊपर काफी ज्यादा ठंड होती है। अब जब ये वाटर वैपर हायर एल्टीट्यूड पर मौजूद होता है ठंडी की वजह से कंडेंसेशन होती है ये वाटर वेपर - वाटर में बदल जाता है। बहुत ही छोटी-छोटी वाटर ड्रॉप्स। यही वाटर ड्रॉपलेट्स जब हवा में ऊपर सस्पेंडेड रहती है तो हमें बादल दिखते हैं वास्तव मे यही क्लाउड्स है। ये छोटी सी वाटर ड्रॉपलेट्स जो क्लाउड्स को बनाती है ये बहुत छोटी है, इतनी छोटी की एक मिली मी का भी 100 इनका डायमीटर है और एक बादल में ऐसी मिलियंस ऑफ ड्रॉपलेट्स होती है। अगर कोई बादल और भी ज्यादा हायर एल्टीट्यूड पे मौजूद है तो हवा और भी ज्यादा ठंडी हो जाति है इसका मतलब कंडेंसेशन ही नहीं बल्कि फ्रीजिंग भी हो जाति है। ये वाटर ड्रॉपलेट्स बर्फ के छोटे क्रिस्टल में बदल जाति हैं और क्रिस्टल से क्लाउड बनते हैं। तो इस सेंस में देखा जाए तो दो तरीके के बादल है एक जो वाटर ड्रॉपलेट से बनते हैं और दूसरे जो की क्रिस्टल से बनते हैं। इन दोनों के बीच में आसानी से फर्क बताया जा सकता है जो की क्रिस्टल की क्लाउड्स है वो और ज्यादा ऊपर मौजूद होते हैं दिखने में उनकी कोई क्लियर बाउंड्री लाइन नहीं होती और वो ज्यादा पतले होते हैं। जो मोटे-मोटे बादल आपको जमीन के ज्यादा पास दिखते हैं वो वाटर ड्रॉपलेट से बने हुए बादल है। अगला सवाल उठाता है की इन बादलों से बारिश कैसे होती है? होता क्या है दोस्तों की ये जो छोटी-छोटी ड्रॉपलेट्स है जब ये जमा होती रहती है और ड्रॉपलेट्स आती रहती है बादल बड़ा होता रहता है, तो छोटी-छोटी ड्रॉपलेट एक दूसरे से कोलाइड करती हैं एक दूसरे में जाकर मिक्स हो जाति हैं बड़ी ड्रॉपलेट्स बनते है। ये बड़ी ड्रॉपलेट्स और ऊपर जाकर फ्रिज होकर  क्रिस्टल बनते है और क्रिस्टल भी कोलाइड करके एक दूसरे के साथ बड़े क्रिस्टल बनते हैं। ये प्रोसेस चलता रहता है तब तक जब तक ये की क्रिस्टल इतने बड़े नहीं हो जाते की इनके वजन की वजह से ही ये जमीन पर नीचे गिरने लग जाए और जब ऐसा हो जाता है तब ये जमीन पर गिरते है। नीचे गिरते समय अगर हवा का तापमान ठंडा है तो ये बर्फ की तरह नीचे गिरेंगे और स्नोफॉल होगी। अगर हवा ग्रम है नीचे जमीन पर तो ये पिघल जाएंगे और बारिश की तरह नीचे गिरेंगे। अब क्लाउड सीडिंग की बात करी जाए तो इंसानों के इतिहास में इस टेक्नोलॉजी की एंट्री होती है एक घटना की वजह से। ऐसी चीजों के लिए एक इंग्लिश में शब्द इस्तेमाल किया जाता है सेरेनडिपिटी, इसका मतलब है किसी घटनावस कुछ ऐसी चीज होना जिससे हमें फायदा मिले। सेरेनडिप्टियस डिस्कवरी का एक बड़ा एग्जांपल है वैक्सीन की डिस्कवरी होना। डॉक्टर सिकंदर फ्लेमिंग ने जब पेनिसिलिन का आविष्कार किया था ये भी बाय चांस हुआ था। तो क्लाउड सीडिंग भी एक सेरेंडडिप्टी डिस्कवरी थी। सन् 1943 की बात है डॉक्टर विंसेंट शेप और एक अमेरिकन केमिस्ट और मीटरोलॉजिस्ट थे। ये रिसर्च कर रहे थे एयरक्राफ्ट इचिंग और प्रेसिपिटेशन के ऊपर। सन् 1946 में इन्होंने अपनी रिसर्च में एक कोल्ड बॉक्स का इस्तेमाल किया। एक ऐसा बक्सा जो काफी ठंडा था किसी और चीज की टेस्टिंग करते वक्त ये अपने एक्सपेरिमेंट में अक्सर ब्रेड आउट करते थे। इस ठंडा बक्से के अंदर जैसे की आप मानते हैं हमारी सांस जो बाहर निकलते है हमारे मुंह से उसमें वाटर वेपर होता है और अगर बाहर ठंड है तो कंडेंसेशन होएगी। यही चीज होती हुई इन्होंने नोटिस करी। ये चीज वैसे आप खुद भी देख सकते हैं ठंड के मौसम में जब आप बाहर जाएंगे और आप बाहर सांस लेते हैं तो ऐसा लगता है की कुछ धुंआ सा निकल रहा है । वास्तव में जो आपको ये धुआं फाग दिखती है ये क्या है? ये वही बहुत साड़ी छोटी-छोटी टाइनी वाटर ड्रॉपलेट्स है। इन छोटी-छोटी टाइनी ड्रॉप प्लेट्स में वही प्रोसेस जो बादलों में होता है। तो ये कहना गलत नहीं होगा की आपके मुंह से जो बाहर निकल रहा है विंटर में वो एक तरीके का मिनी क्लाउड है। अब डॉक्टर शेखर ने भी यही चीज होती हुई नोटिस की ।
लेकिन वो इसे एक स्टेप और आगे ले गए उन्होंने सोचा की क्या होगा अगर मैं इस बॉक्स को और ठंडा बना दूंगा। ये करने के लिए उन्होंने ड्राई की का इस्तेमाल किया। ड्राई की बेसिकली कार्बन डाइऑक्साइड का सॉलिड फॉर्म होता है इसे सामान्यतः इस्तेमाल किया जाता है | रेफ्रिजरेशन और कॉलिंग के लिए और ये सिर्फ -78 डिग्री सेल्सियस के टेंपरेचर पर ही एक्जिस्ट करता है। तो इन कुछ ड्राई की ले जा कर कोल्ड बॉक्स में रख दी और फिर जब इन्होंने जाकर ब्रेड आउट किया उसे बॉक्स के अंदर कुछ चमत्कारी होते हुए देखा अचानक से इनके मुंह
से निकलने वाली हवा बहुत सारे मिलियन ऑफ माइक्रोस्कोपिक की क्रिस्टल में बदल गई। इन्होंने नोटिस किया की अगर अचानक से इतना ठंडा टेंपरेचर होगा तो वाटर वेपर बड़ी जल्दी की क्रिस्टल में बदल जाएगा और ये चीज एक बार फिर से क्लाउड्स में होती है। लास्ट स्टेज पर जब वो आइस कि बड़े होने लगता हैं उनका वजन बढ़ जाता है। इन्होंने देखा की ड्राई की का इस्तेमाल करने से ही प्रोसेस फास्ट फॉरवर्ड हो गया है। डॉक्टर शेफारे ने तुरन्त इस चीज को लेकर और जांच करी और एक्सपेरिमेंट कंडक्ट करें। ध्यान से समझने के लिए ये, की एक्जेक्टली हो क्या रहा है। फाइनली जब इन्होंने चीजों को समझा उन्होंने पुनः विचार किया की इस चीज का तो रियल लाइफ में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। क्यों ना आसमान में मौजूद बादलों को जल्दी से ठंडा बनाने की कोशिश की जाए ड्राई की का इस्तेमाल करके ताकि हमें तुरन्त स्नोफॉल और बारिश देखने को मिले। सन्  13th नवंबर 1946 डॉक्टर शेखर ने एक प्लेन उदय स्वर्ग से अपने साथ इस एरोप्लेन में करीब ढाई किलो ड्राई की लेकर गए और माउंट ग्रिल ऑफ पहाड़ी के पास मौजूद एक बादल पर इन्होंने अपना टेस्ट कंडक्ट किया। एरोप्लेन से इन्होंने क्रस्ट ड्राई की को बादलों के ऊपर फेंका और जो इन्हें रिजल्ट दिखा वो कमल का था। इन्होंने देखा की अचानक से भारी स्नोफॉल और बारिश हो रही है। यहां से ही इन्वेंशन हुआ क्लाउड सी का।

आज के दिन डॉक्टर विंसेंट शेखर को क्रेडिट दिया जाता है क्लाउड सीडिंग के इन्वेंशन के पीछे लेकिन इससे पहले एक और आदमी थे विलियम राइस करके जिन्होंने क्लेम किया था की अमेरिका में उन्होंने क्लाउड बस्टर मशीन बना ली है। ये कहते थे की ये अंग एनर्जी का इस्तेमाल करके कॉस्मिक एनर्जी का इस्तेमाल करके ये
एटमॉस्फेयर को मैनिपुलेट कर सकते थे और बारिश ला सकते थे। इन्होंने अपनी रिसर्च का नाम दिया कॉस्मिक अंग इंजीनियरिंग , लेकिन जैसा आप गैस कर ही सकते हो ये उस टाइप के लोगों में से थे जो फ्रॉड चीज से क्लेम करते थे। इनकी मशीन बिल्कुल काम नहीं करी और ये बस क्रेडिट लेने का एक तरीका था। मजेदार चीज ये है की शेखर के अलावा एक और साइंटिस्ट थे जो क्लाउड सीडिंग की टेक्नोलॉजी पर काम कर रहे थे लेकिन एक पुरी अलग पर्सपेक्टिव से साइंटिस्ट बेरहार्ड फोंट गुड इनका विचार था की मैं ये नहीं चाहता की ड्राई की का इस्तेमाल किया जाए जिससे चीज ठंडी बने और फिर जाकर यहां पर क्लॉदिंग हो। मैं चाहता हूं की कोई एक ऐसा केमिकल इस्तेमाल कर लिया जाए जिससे ये प्रोसेस पूरा किया जा सके। इनका विचार पानी की कंडेंसेशन प्रॉपर्टी पर आधारित था। कंडेंसेशन का जो प्रोसेस है उसमें एक शर्त है। वाटर वेपर को वाटर में बदलने के लिए कंडेंसेशन के प्रोसेस को होने के लिए एक नॉन गैसियस सतह की जरूर होती है, यानी की एक सॉलिड सतह या लिक्विड सतह चाहिए। कंडेंसेशन के प्रोसेस को करने के लिए अगर यह सतह नहीं मौजूद होगा तो कंडेंसेशन नहीं हो शक्ति। बिना इस सरफेस के कहा जाता है की वाटर वेपर वाटर वेपर ही बना रहेगा चाहे टेंपरेचर -10° तक भी क्यों ना गिर जाए। छोटे-छोटे पार्टिकल्स हमारी एटमॉस्फेयर में होते हैं जो पौलेंस हमारी हवा में घूमते हैं ये सरफेस की तरह एक्ट करते हैं। कंडेंसेशन के प्रोसेस को करने के लिए जब बादलों की फॉर्मेशन होती है तो बात क्या है जितना ज्यादा अच्छा सतह मौजूद होगा उतनी ही ज्यादा जल्दी कंडेंसेशन होगी और ज्यादा अच्छे तरीके से कंडेंसेशन होगी। इसका एक प्रैक्टिकल एग्जांपल आप अपने बाथरूम में देख सकते हैं जब आप नहाते हैं शावर करते हैं अगर आपके शावर के आसपास ग्लास लगे हुए हैं तो उन ग्लास पे कंडेंसेशन देखने को मिलती है। वाटर वेपर जाकर कलेक्ट कर जाता है या फिर जब ज्यादा ह्यूमिडिटी हमें देखने को मिलती है। आपने नोटिस किया होगा की अगर विंटर का मौसम है तो खिड़कियों के कोनो में आपको कंडेंसेशन होती हुई दिख रही होगी। वाटर ड्रॉपलेट जमा होते हुए दिख रहे होंगे क्योंकि घर के अंदर ह्यूमिडिटी बहुत ज्यादा है वाटर वेपर की संख्या बहुत ज्यादा है, तो वो वाटर वेपर जाकर कांड् कर जाता है। जब वो ठंडी खिड़की से टकराता है और वो खिड़की का जो ग्लास है वो एक सतह प्रोवाइड कर रहा है। कंडेंसेशन को होने के लिए तो डॉक्टर फोन का यही लॉजिक था की अगर मैं किसी तरीके से बटर सरफेस प्रोवाइड कर दे तो कंडेंसेशन का प्रोसेस और जल्दी होगा। इन्होंने एक्सपेरिमेंट किया सिल्वर और आयोडीन जैसे केमिकल से और सिल्वर आयोडीन का इस्तेमाल करके इन्होंने देखा की एक्चुअली में सिल्वर आयोडीन बहुत ही अच्छा सरफेस प्रोवाइड करता है। वाटर वेपर को सिल्वर आयोडीन की प्रॉपर्टी है की ये काफी सारे मॉइश्चर अपने अंदर एब्सर्ब कर लेते है तो वाटर वेपर इसकी तरफ आकर्षित भी हो जाता है और कन्वर्ट भी हो जाता है वाटर में। आज के दिन कई और सिल्वर आयोडीन जैसे मैटेरियल्स के बड़े में हम जानते हैं जिनकी खास बात है अपने आसपास मौजूद मॉइश्चर को ऑब्जर्व करना और इन मैटेरियल्स को हम बोलते हैं क्लाउड सीड्स या फिर क्लाउड कंडेंसेशन। जैसे ड्राई की को बादलों में फेंका था डॉक्टर शॉपर ने, हम इन क्लाउड सी मैटेरियल्स का इस्तेमाल कर सकते हैं बादलों में फेंकने के लिए जिससे कंडेंसेशन का प्रोसेस स्पीड अप हो जाए और हमें जल्दी से बारिश देखने को मिले। अब आपको सुनकर लगेगा की कोई नई टेक्नोलॉजी है लेकिन इन दोनों मैथर्ड को ऑलरेडी इस्तेमाल किया जा रहा था। जनरल इलेक्ट्रिक के द्वारा साल 1946 में और उस समय एक बड़ी रिवॉल्यूशनरी डिस्कवरी थी की इतिहास में पहली बार इंसान मौसम को कंट्रोल कर का रहे हैं। 

आने वाले समय में जो प्रोसेस था क्लाउड सीडिंग करने का वो धीरे-धीरे इंप्रूव हुआ। सबसे पहले ये रिलेट किया लोगों ने की ये क्लाउड सीडिंग का जो मेथड है एरोप्लेन का इस्तेमाल करना और उनके ऊपर जाकर क्लाउड
सीड्स टपकाना ये बड़ा ही एक्सपेंसिव मेथड है। इसका एक अल्टरनेटिव डिसाइड किया गया की जमीन से ही हम रॉकेट शूट अप करें जिसमें क्लाउड सीड्स डाली है और ये बादलों में जाकर टकराए और बारिश हो। जैसे ही दुनिया भर के लोगों को, सरकारों को इस अविष्कार के बारे में पता चला हर कोई लग गया ढूंढने में की,  किस तरीके से वो अपने फायदे के लिए इस क्लाउड सीडिंग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर सकते हैं। नवंबर 1955 में
थाईलैंड देश के जो राजा थे उन्होंने एक थाईलैंड रॉयल री मेकिंग प्रोजेक्ट लॉन्च किया। थाईलैंड में किसान अक्सर शिकार बनते थे सूखे का। इनके द्वारा सजेस्ट किया गया मेथड कुछ हद तक सक्सेसफुल रहा। आज के दिन इस प्रोग्राम को रन किया जाता है डिपार्मेंट ऑफ रॉयल रेन मेकिंग इन एग्रीकल्चर एवियशन के द्वारा। थाईलैंड आगे चलकर साल 2001 में यूरेका ऑर्गेनाइजेशन ने थाईलैंड के इन राजा को एक अवार्ड भी दिया था। इसके लिए इंडिया की बात करें तो इंडिया में क्लाउड सीडिंग ऑपरेशंस कंडक्ट किया गया। 1983 में 1984 - 87 में और तमिलनाडु सरकार के द्वारा 1994 में जब एक सीबीआई ड्रॉट की सिचुएशन आई थी। तमिलनाडु
कर्नाटक सरकार ने भी क्लाउड सीडिंग को इनीशिएट किया था 2003 में और महाराष्ट्र की स्टेट में भी एक कंपनी वेदर मोडिफिकेशन आईएनसी ने ऑपरेशंस कंडक्ट किया। इस साल ये ऑपरेशंस कितने सक्सेसफुल हुए इसकी आगे बात करते हैं लेकिन इससे पहले बहुत से देश ने यह रिईलाइज किया की क्लाउड सीडिंग का वो इस्तेमाल कर सकते हैं बारिश को रोकने के लिए भी। अगर आप कुल मिलाकर इस प्रोसेस को देखोगे तो हम यहां पर क्या कर रहे हैं हम कंडेंसेशन की प्रोसेस को स्पीड अप कर रहे हैं। जो बादलों में वाटर ड्रॉपलेट्स मौजूद है हम उन्हें जल्दी से जल्दी बारिश की तरह इस्तेमाल करे। यह कोशिश की जा रही है तो अगर किसी एरिया में किसी स्पेसिफिक दिन हमें बारिश को होने से रोकना है तो उसके आसपास के एरियाज में पिछले कुछ दिनों में क्लाउड सीडिंग कर दी जाए यानी वहां जो बादलों में वाटर ड्रॉपलेट्स मौजूद है वो पहले से ही नीचे गिर जाएगी और बादल खत्म हो जाएंगे और आने वाले दोनों में कोई बारिश नहीं देखने को मिलेगी। एक्जेक्टली इसी टेक्निक का इस्तेमाल किया साल 2008 में चीन ने बीजिंग ओलंपिक के दौरान। वो चाहते थे की ओपनिंग सेरेमनी के दौरान कोई बारिश ना हो जिससे कोई प्रॉब्लम्स क्रिएट ना हो। इसके बाद फरवरी 2009 में चीन ने आयोडीन स्टिक्स का इस्तेमाल किया। बीजिंग एरिया में करीब 3 दिन तक बर्फ गिरी और इनकी 12 सड़कों को बैंड भी करना पड़ा था बर्फबारी की वजह से। अब इसकी योजना है की रिवर को ये रिवाइव करें इसी प्रोसेस का इस्तेमाल करके। आसन नहीं होगा इतनी बड़ी रिवर को रिवाइज करना लेकिन प्रॉपर प्लानिंग के साथ शायद हो सकता है। इनफैक्ट प्रॉपर प्लानिंग और रिसोर्सेस की सही यूटिलाइजेशन के साथ क्या पॉसिबल नहीं है अचीव करना। 


इसके अलावा क्या आप जानते हैं क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल किया जा सकता है ओलों का साइज कम करने के लिए ताकि उनसे नुकसान इतना ज्यादा ना हो या फिर जो फाग हमें देखने को मिलती है। फाग का अमाउंट कम करने के लिए एयरपोर्ट्स के अराउंड स्पेशली, ताकि फ्लाइट्स टाइम पर उड़ा सके। दुनिया में कुछ एयरपोर्ट इसका एक्चुअली मैं इस्तेमाल करते भी है फाग को कंट्रोल करने के लिए बुल्गारिया बड़ा अच्छा एग्जांपल है इसका। बुल्गारिया में एक्चुअली में एक नेशनल नेटवर्क ऑफ हिल प्रोटेक्शन बनाया गया है। अपने खेतों के आसपास इन्होंने स्ट्रैटेजिक रॉकेट लगाएं सिल्वर आयोडीन के, जब इन्हें दिखता की एक हिल आने वाला है यानी ओले गिरने वाले हैं तो इन्होंने उन रॉकेट का इस्तेमाल किया उन्हें कंट्रोल करने में और सिर्फ 10 मिनट का समय लगता है ये करने में काफी इफेक्टिव प्रूफ हुई है ये स्ट्रेटजी। 1967 से लेकर आज तक जो डाटा कलेक्ट किया गया है। उसने साबित किया है की काफी भारी एग्रीकल्चर सेक्टर में जो लॉसेस होते वो बच गए। इस टेक्नोलॉजी की मदद से रूस ने एक बड़ा इंटरेस्टिंग तरीका ट्राई किया था क्लाउड सीडिंग का। साल 2008 में उन्होंने कोशिश करी क्लाउड्स को सीट करने की सीमेंट बैग्स का इस्तेमाल करके और हुआ क्या की 17 जून 2008 की बात है एक सीमेंट का बैग जो इन्होंने फेंका था बादलों के ऊपर वो बादलों में जाकर पिघला नहीं बल्कि एक घर के ऊपर जाकर गिर गया और तीन फिट का बड़ा सा गढ़ा हो गया। 

अब हर टेक्नोलॉजी के फायदे नुकसान होते हैं ऐसा तो हो नहीं सकता की क्लाउड सीडिंग जैसी चमत्कारी टेक्नोलॉजी हो और इसका कोई नुकसान ना हो। सब से बड़ा ऑब्वियस कंसर्न जो उठाया जाता है क्लाउड सीडिंग को लेकर वो ये है की इससे लॉन्ग टर्म क्या इंपैक्ट पर रहा है हमारे वेदर पर। क्या लगता है आपको कोई हानिकारक इंपैक्ट होगा इसका? ज्यादातर लोगों को जवाब होगा की हां कुछ ना कुछ तो हानिकारक इंपैक्ट होगा इसका लेकिन हैरानी की बात यह है की अभी तक जितनी भी स्टडीज करी गई है क्लाउड सीडिंग को लेकर एनवायरनमेंट पर कोई भी लास्टिंग नेगेटिव इफैक्ट्स नहीं दिखा। इसके पीछे कारण हो सकता है की अगर आप गहराई से इस प्रोसेस को समझोगे आपको पता लगेगा की बेसिकली ये प्रोसेस है क्या? हम कंडेंसेशन के इफेक्ट को स्पीड अप कर रहे हैं कोई चमत्कारी तरीके से बादल नहीं बना रहे हैं। जो एक्जिस्टिंग बादल है हम उन्हें फोर्स कर रहे हैं की अभी बारिश हो जाए उन बादलों से बाद में होने की जगह तो इसलिए अगर आप थोड़ा सोच कर देखोगे आपको दिखेगा की शायद ये उतनी भी यूजफुल टेक्नोलॉजी नहीं है जितना आपको लग रहा हो। हम ये कंट्रोल कर सकते हैं की हाल की जगह आज बारिश कर दें इस रीजन की जगह इस रीजन में बारिश कर दे, लेकिन ओवर जो हम अपनी इमेजिनेशन से हवा में वाटर वेपर नहीं दाल सकते हवा में अगर वाटर पेपर मौजूद है तभी तो जाकर बादल बनेंगे अगर वाटर पेपर ही नहीं होगा तो कहां से बादल बनेंगे कहां से क्लाउड सीटिंग करी जाएगी। यही करण है की काफी ऐसी स्टडीज हैं जो कहती हैं की क्लाउड सीडिंग एक ऐसी टेक्नोलॉजी है जो काम नहीं करती। बारिश की टोटल संख्या को बढ़ाना पॉसिबल नहीं है। इस चीज को लेकर कोई कंक्रीट एविडेंस नहीं है हमारे पास फेवर में या अगेंस्ट में शुरुआत में एक कंसर्न लोगों का यह भी था की सिल्वर आयोडीन का इस्तेमाल करने से हमें इंजरी हो शक्ति है।  इंसानों को या बाकी जानवरों को अगर ज्यादा एक्स्पोज़र सिल्वर आयोडीन का हुआ, लेकिन बहुत ही थोड़े मात्रा का सिल्वर आयोडीन इस्तेमाल किया जाता है क्लाउड सीडिंग में, तो कोई भी इकोलॉजिकल एनवायरनमेंट और हेल्थ इंपैक्ट इसका नहीं पड़ता। और अब तक यह भी समझ गए होंगे की इस टेक्नोलॉजी की लिमिटेशंस कितनी बड़ी है। इमेजिन करो अगर इंडिया में हवा साउथ से नॉर्थ बहने लग रही है, जो बारिश का सीजन है वो साउथ से नॉर्थ में जाता है तो, जो पहले बादल है वो कर्नाटक केरला के क्षेत्र में आते हैं बाद में ये बादल जाकर दिल्ली तक पहुंचने हैं। क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल करके हम फोर्स कर सकते हैं की ये बादलों की बारिश यही केरला कर्नाटक में हो जाए दिल्ली तक पहुंचने की जगह। कल्पना करो इंडिया में जो हवाएं हैं वो पश्चिम से पूर्व बहाने लग रही है, तो राजस्थान का जो डेजर्ट है उसके ऊपर से कुछ बादल जा रहे हैं, अगर हम क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल करें राजस्थान में बारिश करने के लिए तो वो बादल तो खत्म हो जाएंगे। अगर क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल नहीं किया जाता तो हो सकता है वो बादल दिल्ली तक पहुंचकर इतने बड़े होते हैं की दिल्ली में जाकर बरसते।

क्लाउड सीडिंग की टेक्नोलॉजी हमें बस चॉइस दे रही है बादलों को राजस्थान में बरसाना है या दिल्ली में बरसाना है। बारिश जल्दी आनी चाहिए या उसे थोड़ा देर कर दें। ये कंट्रोल कर सकते हैं हम ये कंट्रोल नहीं कर सकते की राजस्थान के ऊपर बादल ही नहीं है तो अचानक से बादल लेले ये पॉसिबल नहीं है। रिसेंट टाइम्स की बात करें तो नई टेक्नोलॉजी भी निकल कर आ रही है। क्लाउड सीडिंग को लेकर जैसे की एक रिसेंट टेक्नोलॉजी आई है क्लाउड जैपिंग की, इस मेथड में क्या किया जाता है ड्रोन हवा में जाकर बादलों को एक इलेक्ट्रिक करंट देते हैं । यह पाया गया है की इस इलेक्ट्रिक चार्ज की मदद से जो छोटी-छोटी ड्रॉपलेट्स होती है वो और आसानी से एक दूसरे के साथ मर्ज करके बड़ी ड्रॉपलेट्स बन जाति हैं। तो इलेक्ट्रिक करंट अगर हम डालेंगे बादलों में तो ज्यादा जल्दी बरस जाएंगे वो इस मेथड को करेंटली यूएई जैसे देश में टेस्ट किया जा रहा है। कुछ जगह पर सजेस्ट किया गया है की क्लाउड सीडिंग और क्लाउड जैपिंग की टेक्नोलॉजी को साथ में इस्तेमाल किया जाए। हम सिल्वर आयोडीन का भी इस्तेमाल करें और साथ में इलेक्ट्रिक करंट भी दे ताकि और जल्दी बरस जाए बादल। इससे जो प्रोसेस की एफिशिएंसी है वो और भी ज्यादा इंप्रूव हो जाएगी। पूरे इतिहास में इसका एक ही बड़ा एग्जांपल है जहां पर क्लाउड सीडिंग की टेक्नोलॉजी को गलत काम के लिए इस्तेमाल किया गया। ये बात है 1970 की वियतनाम वार के दौरान अमेरिकन फोर्स ने ऑपरेशन पपाल लॉन्च किया था, जिसे 1967 से लेकर 1972 के बीच में कैरी आउट किया गया। ये हाली क्लासीफाइड प्रोग्राम था जिसका मकसद था की जो मानसून सीजन है वियतनाम के कुछ एरियाज के ऊपर उसे एक्स टेंड कर दिया जाए। इसकी मदद से जो नॉर्थ वियतनाम की मिलिट्री सप्लाईज होगी वो इफेक्ट हो जाएगी। जब ज्यादा बारिश होगी सड़के ठीक नहीं होगी मिट्टी बहुत सॉफ्ट हो जाएगी लैंडस्लाइड आने के चांसेस बढ़ेंगे मिलिट्री पर एक बड़ा असर पड़ेगा। इन्होंने सिल्वर आयोडीन का इस्तेमाल किया क्लाउड सीडिंग करी ताकि जल्दी से बारिश हो ज्यादा बारिश हो वियतनाम में। इसके बाद से किसी और देश ने इस टेक्नोलॉजी का इस तरीके से गलत प्रयोग नहीं किया है लेकिन कुछ कंस्पायरेसी थ्योरी जरूर है जो लोगों के बीच फैली है इस टेक्नोलॉजी को लेकर साल 2021 में उस में टैक्सास में स्नोफॉल हुई थी जो की बहुत रेयर होता है ना और कई कंस्पायरेसी थिअरीज का कहना था की इस सरकार मैनिपुलेट करने लग रही है वेदर को अपने सेल्फिश रीजंस के लिए वो जान बुझ कर स्नोफॉल गिरा रहे हैं टैक्सास में, उन्होंने ब्लेम बिलेनियर बिल गेट्स पर भी डाला। बाद में यही कंस्पायरेसी थिअरीज ने कैलिफोर्निया में हुए ड्रॉट के लिए सरकार पर भी ब्लेम डाला यह कहते हुए की उनकी वेदर मैनिपुलेशन की वजह से ये हो रहा है। ये सारे क्लाइम्स एक बड़ी कंस्पायरेसी थ्योरी में टाइम करते हैं जिसका नाम है "डी कैंप ट्रायल कंस्पायरेसी थ्योरी आइडिया" । थ्योरी के पीछे की सारे हवाई जहाज ऐसे केमिकल्स कंटेन करते हैं जो वेदर मॉडिफाई कर सके। साइकोलॉजी के लिए लोगों को मैनिपुलेट कर सके और ह्यूमन पापुलेशन कंट्रोल कर सके। बार-बार इस आरोपों को झूठ साबित किया जा चुका है।

टेक्नोलॉजी यही है जो मैंने आपको बताई और बहुत ही लिमिटेड टेक्नोलॉजी है। स्ट्रैटेजिक कुछ जगह पर इसका डेफिनेटली इस्तेमाल किया जा सकता है। ओलंपिक के ओपनिंग सेरेमनी में अगर बारिश नहीं करनी, किसी क्रिकेट मैच में अगर बारिश को होने से रोकना है तब इस्तेमाल किया जा सकता है, या अगर आपकी शादी में आपके पास करोड़ रुपए है बारिश होने से रोकने के लिए तो आप इस्तेमाल कर सकते हो।

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